Sunday, February 7, 2016

मेरी कश्ती तो किनारे पर आके ही डूब जाती है..

मंज़िले थोड़ी सी दूर रह जाती है,
हर बार कुछ ना कुछ कमी रेह जाती है,
पार कर लेती है यु तो पूरा दरिया फिर भी,
मेरी कश्ती तो किनारे पर आके ही डूब जाती है..



फूलो से पत्तिया बिखर जाती है,
गुलशन में आई बहार लौट जाती है,
पतझड़ का मौसम लूट जाये सारा गुलशन,
बस तूटी हुई पत्तिया ही बाकी रेह जाती है...

आसमाँ में काली बदली छा जाती है ,
सूरज को वो अपने पीछे छिपा जाती है,
बरसात तो बहाना है आंसू छिपाने का,
यु तो ये बरखा हमारे आँखों से ही बहे जाती है...
पार कर लेती है यु तो पूरा दरिया फिर भी,
मेरी कश्ती तो किनारे पर आके ही डूब जाती है.. 


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