सपनो का दर्पण तूट गया, तुटके चूर-चूर हो गया,
किसी से कुछ केह ना शके और छुपा भी ना शके ,
ये मैं कैसा मजबूर हो गया...
ये कैसा खेल रचाया तूने उपरवाले,
की पेहले तो खेलना शिखाया और फिर खेलने के काबिल ही न छोड़ा,
ये तो बता ऐसा हमसे क्या कुसूर हो गया,
ये मैं कैसा मजबूर हो गया...
प्यार तो हो जाता है सबको,
पर सबके नसीब ये कहाँ होता है,
किसी को जिंदगी दी तो किसी से जिंदगी ले ली,
अब तो सच्चे प्यार से ही हमारा भरोसा दूर हो गया,
ये मैं कैसा मजबूर हो गया...
समंदर की शांत लेहरें अचानक ले आती है तूफां ,
थम जाती है फिर बहाके अपने साथ सब कुछ,
पर दिल में उठा तूफां तो थमता ही नहीं छहे कर लो कुछ भी,
इन धडकनो को भी ना जाने क्या मंजूर हो गया,
ये मैं कैसा मजबूर हो गया...
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